(To Ibn-e-Insha)
एक तो वैसे ही मुश्किल थी डगर क्या कीजै,
हमसफ़र छोड़ गया बीच सफ़र क्या कीजै।
कि जिसके मुंतज़िर गुज़री ये उमर क्या कीजै,
उसी को नहीं मेरे हालत की खबर क्या कीजै।
असीर-ए-ज़ुल्फ़ हुए जो कभी छूटे ही नहीं
ज़ीस्त गर ज़ुल्फ़ बने ज़ोर-ओ-जबर क्या कीजै।
हमारा फ़र्ज़ था उस दर से दुआ मांगें हम
वो अपने फ़र्ज़ से जो जाए मुकर क्या कीजै।
मात खाई तो अक्ल आई कि इश्क बाज़ी में
काम ना आए अक्ल, ना ही हुनर क्या कीजै।
दुआ-ए-मर्ग दे ऐ चारागर जो देना है
मरीज़-ए-इश्क को दवा औ असर क्या कीजै।
मकीं हुआ है वो रकीब रकबा-ए-दिल पर
अपना ही नहीं दिल अपना अगर क्या कीजै।
साँस सब खर्च के इलहाम हो गर क्या कीजै
माल-ओ-ज़र क्या कीजै, अलमास-ओ-गौहर क्या कीजै।
तौबा भी करते रहे हम हरेक गुनाह के बाद,
फ़रिश्ते उलझन में हैं रोज़-ए-हशर क्या कीजै।
साकिया खुम-ओ-सुबू सब हैं तेरी आँखों में,
हमारे लब ही नहीं ज़ेर-ए-नज़र क्या कीजै।
‘का किसी’ से कहें, सच कह के गए इंशाजी,
सुकूं वहशी को औ जोगी को नगर क्या कीजै।

मुंतज़िर: इंतज़ार में | असीर-ए-ज़ुल्फ़: ज़ुल्फ़ के कैदी | ज़ीस्त: ज़िंदगी | ज़ोर-ओ-जबर: शक्ति का प्रयोग | बाज़ी: खेल |
दुआ-ए-मर्ग: मरने की दुआ | चारागर: चिकित्सक | मकीं: रहने वाला | रकीब: दुश्मन | रकबा-ए-दिल: दिल की ज़मीन | इलहाम: ज्ञान |
माल-ओ-ज़र: धन-दौलत | अलमास-ओ-गौहर: हीरे-मोती | रोज़-ए-हशर: क़यामत का दिन | खुम-ओ-सुबू: शराब | ज़ेर-ए-नज़र: ध्यान में