बहुत हुआ कि अब नहीं मेरे सरकार नहीं
यक़ीन तुमपे है तेरे वादों पे ऐतबार नहीं
और कितने बरस होगा इंतज़ार-ए-बहार
इंतहा हो चुकी अब सब्र-ए-इंतज़ार नहीं
हमें तो उज्र है बस हाँ में हाँ मिलाने से
तुम्हारी बात से हमको कोई इनकार नहीं
कभी कभार जो हो जाए खता होती है
मुआफ़ कर दूं गर सताओ बार बार नहीं
सर को छत बदन को वर्क पेट को रोटी
हक़ ये नारों के हक़ीक़त में नमूदार नहीं
मसखरी करता है महफिल में इंतख़ाब तेरा
तुम शर्मिंदा हो पर ज़रा भी शर्मसार नहीं
चमन क्या करे इक गुल के गुलमटे इतने
ग़ुलाम ख़ुशरू के ख़ुशबू के पैरोकार नहीं
दिया हमीं ने हुकूमत का अख़्तियार तुम्हें,
हमारा तुमपे कभी कोई अख़्तियार नहीं?
ये आम राय है ज़ालिम हो मुन्तख़ब रहबर
यही है राह तो फिर हमको करो शुमार नहीं
ज़ुल्म ऐसा कि ख़ुद की सोच जुर्म जैसा है
इल्म इतना नहीं ये इश्क़ है व्यापार नहीं
कितनी तारीक़ हैं ये जुल्मतें जहालत की
कि तालिब भी रोशनी के तलबगार नहीं
तुम्हारी याद के धागों से ख़्वाब बुनता हूं
तेरी क़सम मेरा और कोई रोज़गार नहीं
साकिया हो चुका रिंदों का इम्तिहान बहुत
तेरा ख़ुमार है मय का कोई ख़ुमार नहीं