आइने टूटे थे जो उस रात तब ना जाने कब
मेरे पांवों में चुभ गया था टुकड़ा शीशे का
फिर मेरे कदम जहाँ पड़े, मैं लिखता गया
अपने ज़ख्मों की कहानी लहू से अपनी ही
नामुकम्मल है अभी भी वो किताब मेरी
जिसमें एक सफ़ा है वफ़ा के नाम से भी
ज़िक्र उसमें तुम्हारा है और मेरा भी
उस पे चस्पां है शीशे का वो टुकड़ा भी
तुम्हारा अक्स जिसमें अब तक है!
जफ़ा तो जब हो कि वफ़ा भी हो,
बिछड़े वो तब, जब मिला भी हो
तन मिले थे, मन मिले थे क्या
मन मिले थे तो फिर गिले क्यों हैं
अलग हुईं थी राहें या हमने कर डालीं
इस बात पर बहस-मुबाहिसा करो ना करो
राह हसीन है मगर मंज़िल को नहीं जाती है,
अगर मंज़िल को है तो रस्ता हसीन हो या ना हो!
तुम्हारे ख़्वाब के ताबीर भी अधूरे हैं
मेरा भी ताजमहल हो सका तामीर नहीं
कहाँ का शाह-ए-जहाँ, देख पैरहन मेरा
एक इबारत सी लिख रखी है पैबन्दों ने
बीते हुए लम्हों की जबानी जिसमें
अफ़सुर्दा रातों के कितने स्याह किस्से हैं
इस इन्तज़ार में कि तुम आओगे, सुनोगे कभी
इस ऐतबार से कि तुम ही समझ पाओगे!