न जाने क्या हुआ है ऐसा, वो हत्थे से छूट गए हैं
रथ के पहिए टूट गए हैं, बालम मोसे रूठ गए हैं!
लाली हो गई कृष्ण सी काली, रंग उड़ गए होश के साथ
हाथों में थे जितने पटाखे हाथों में ही फूट गए हैं!
मातमपुर्सी-ए-इश्क-ए-कुर्सी, लालिहाज़-ए-उम्र-दराजां,
ज़ेर-ए-नज़र जो एक कनी थी अपने ही आकर लूट गए हैं
गुड़गुड़ करते रहे गुरु और, शक्कर हो गए सारे चेले,
किस बेदर्दी से वो ज़ालिम ज़र-ए-उमर को कूट गए हैं
इक टूटे ढाँचे में बिराजे, राम लला ये देख के बोले,
है इतिहास गवाह रे बेटा, तोड़ने वाले टूट गए हैं!
मातमपुर्सी-ए-इश्क-ए-कुर्सी: कुर्सी के प्यार में मातम मनाना
लालिहाज़-ए-उम्र-दराजां: अपनी लम्बी उम्र का लिहाज़ किए बिना
ज़ेर-ए-नज़र: नज़र में
ज़र-ए-उमर: उम्र भर की दौलत