एक हम नहीं थे काबिल तुम्हारे,
उस पे इतने थे बिस्मिल तुम्हारे!
दो घड़ी और रुकते तो हम भी,
देख लेते हद्द-ए-कामिल तुम्हारे!
तीन हर्फों का जुमला बस सच्चा,
बाकी किस्से हैं बातिल तुम्हारे!
चार दिन की है ये जिंदगानी,
इसमें दो दिन हैं शामिल तुम्हारे!
पांच ऊँगलियाँ डूबी हों घी में,
मुंह में शक्कर हो कातिल तुम्हारे
छः हाथ की ज़मीं ही तो मांगूं,
बाकी सेहरा-ओ-साहिल तुम्हारे!
सात सुर से बनी मौसिकी भी,
कुछ नहीं है मुकाबिल तुम्हारे!
आठ पहरों में रहते हो तुम ही,
रात, दिन भी हैं माइल तुम्हारे!
नौ लखा हार ना दे सके हम,
कर दिया नाम ये दिल तुम्हारे!
दस ये गिनती के हैं मेरे मसले,
बन गए जो मसाइल तुम्हारे!
सुभान अल्लाह
चार दिन की है ये जिंदगानी,
इसमें दो दिन हैं शामिल तुम्हारे!
एकदम नई सोच नई बात