क्या आपको मालूम है कि ९ सितम्बर तक आप एक दिन में बीस से ज्यादा एसएमएस नहीं भेज सकते? नहीं मालूम, तो आप पोस्ट-पेड कनेक्शन वाले भले लोग हैं. सरकार ने प्री-पेड कनेक्शन वालों का कोटा निर्धारित कर दिया है. क्योंकि सांप्रदायिक सौहार्द खतरे में है. प्राथमिक जांच में पता चला कि प्री-पेड ग्राहक के मोबाइल से निकलने वाला हर छठा एसएमएस अफवाह होता है. शुक्र है सरकारी टेलिकॉम विशेषज्ञों का जिन्होंने शुक्रवार को साफ़ किया कि असल खतरा २१वें एसएमएस से है. बीस तक ठीक है.
इतिहास गवाह है कि मेरठ, भागलपुर और १९८४ के दंगे एसएमएस से ही फैले थे. आप कहेंगे तब एसएमएस होता ही नहीं था. यही तो देश की समस्या है. हम बाल की खाल निकालने में लग जाते हैं, समस्या की जड़ तक नहीं जाते. सच ये है कि दंगे दंगाई नहीं करते, भावनाएं करती है. जैसे कि हमारे वर्माजी शनिवार को लाल रंग देखते ही भड़क उठते हैं. पिछले शनिवार उन्होंने जब पड़ोस के शर्माजी को लाल शर्ट पहने देखा तो उनकी भावनाएं आहत हुईं. ऐसे में दंगा करना लाजिमी है, इसलिए वर्मा जी शर्मा जी पर पिल पड़े, उनके घर को आग लगा दी, उन्हें बेरहमी से पीटा. अब बताइए दोष किसका है? ज़ाहिर है शर्मा जी का. उन्हें लाल शर्ट पहन कर बाहर निकलना नहीं चाहिए. सरकार ने लाल रंग की शर्ट पर प्रतिबन्ध लगा दिया. आप विरोध करेंगे तो, प्रतिबन्ध की अवधि घटा कर सिर्फ शनिवार को कर दी जाएगी.
फिर किसी ने इन्टरनेट पर नीले रंग की शर्ट के नीचे लिख दिया: शनिवार को लाल रंग की शर्ट पहन कर घूमता व्यक्ति. मुंबई साक्षात वर्मा जी हो गई. आहत भावनाओं को पुलिस हिंसा के लिए ढील देती है, जैसे कर्फ्यू में ढील दी जाती है. भावनाएँ आज़ाद मैदान में आईं. पुलिसवालों, महिलाओं, अमर जवान की समाधि इत्यादि को आहत करने. पुलिस भावनाओं को कैसे गिरफ्तार करती? इससे घरों में बैठे लोगों की भावनाएं आहत हो गईं. आहत भावनाएं साइकिल स्टैंड पर साइकिल की तरह होती है. एक आहत हो कर आड़ी हुई, तो फिर पूरा स्टैंड आड़ा होता है.
हिंसा पर सख्त सरकार ने एसएमएस को आड़े हाथों लिया. एक नए दृढसंकल्प का परिचय देते हुए इन्टरनेट पर लाल के साथ नीली शर्ट बैन कर दी. ऐसे सभी पन्ने ब्लाक कर दिए गए जिन पर कोई शर्ट लाल होने का दावा कर रहा हो. कमीज़ को तमीज आई फिर बारी आई सोशल मीडिया की, जिसका जादू-टोना कर एक हजारे देश के लाखों नौजवानों को कॉफी शॉप से उठाकर जंतर-मंतर ले आए थे. देश का यौवन यूं दिल्ली में उफानें मारे ये बुजुर्ग व्यवस्था को अच्छा लगता है क्या? करिअर की प्रतियोगिताओं और मुहब्बत की प्रतिस्पर्धाओं की उम्र में ये बच्चे भ्रष्टाचार और काले धन जैसे निहायत गैर-ज़रूरी विषयों पर बहस कर रहे थे. दंगा करने की उम्र में देशभक्ति के गाने गाकर सख्त सरकार को बहुत निराश किया.
(कार्टून मनोज कुरील के फेसबुक पन्ने से. और हंसना है तो यहाँ क्लिक करें)
बढ़ती गरीबी, घटते रोज़गार, गिरते बाज़ार और फैलते भ्रष्टाचार से ये जंग हम तब तक नहीं जीत पाएंगे जब तक हम उसकी जड़ तक नहीं पहुँचते. आपने सही पहचाना, एसएमएस, ट्विटर, फेसबुक ही जड़ें हैं. आप बोलेंगे तो संभव है बोलने की आज़ादी का दुरूपयोग करेंगे. इस बात की क्या गारंटी है कि आप किसी की भावनाएं आहत नहीं करेंगे.
भावनाएं आहत हो जाएं तो हम सैकड़ों निर्दोष भाइयों को मारने पर मजबूर हो जाते हैं, हज़ारों बहनों को बेघर करना पड़ता है हमें. अपने देश और देशवासियों के खिलाफ ही हथियार उठाना पड़ता है. सरकार और पुलिस को चुप बैठना पड़ता है जब तक आहत संवेदनाओं को निकास ना मिल जाए. भूलिएगा मत, आहत भावनाओं को राहत देने के लिए १९८४ में, २००२ में हमें किस तरह मिलजुल कर हत्याएं करनी पड़ी थी.
यूनान-ओ-मिस्र-रोमा सब मिट गए जहाँ से, मिटता नहीं है लेकिन नाम-ओ-निशां हमारा;
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी, सदियों रहा है दुश्मन दौर-ए-जहाँ हमारा.
सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा. हमारी हस्ती को खतरा है तो सिर्फ प्री-पेड मोबाइल से भेजे गए २१वें एसएमएस से, या फिर किसी इन्टरनेट हिंदू के ट्वीट से या फेसबुक पर चस्पां किसी शरारती कहानी से.
इस कहानी को ले लीजिए. हमारे आँगन में एक पेड़ हुआ करता था जो हमें रसदार फल देता था. उसकी छाँव में बैठकर गर्मियों के दिन में दादाजी सुकून पाते थे. पेड़ ठहरा पेड़, उन पक्षियों को भी बिठा लेता था, जिन्हें शौच की तमीज नहीं होती. नीचे बिछी खाट पर बीट देखकर दादाजी भड़क गए. उनकी भावनाएं आहत देखकर पोतों ने मिलकर वह पेड़ ही काट डाला. स्वाभिमान के लिए हम बेटियों की बलि दे देते हैं, पेड़ क्या चीज़ है. हम मीठे फल के लिए तरसते रहेंगे, पर उस चिड़िया की चूंचूं तो बंद हुई. ये मोबाइल, कम्प्यूटर क्या है, चूंचूं है. इसी से सब विकार आए हैं. तकनीक ने हमें दिया क्या है? रेलगाड़ी को ले लो. कितने लोग इसके नीचे आकर आत्महत्या कर लेते हैं. माना कि बेंगलुरु से भागते लोग उसमें बैठ कर असम चले गए, पर है तो वह आत्महत्या का ही एक यंत्र. अकबर इलाहाबादी जैसे बड़े शायर झूठ थोड़े ना लिखेंगे:
खुदा की राह में अब रेल चल गई अकबर,
जो जी करे तो इंजिन से कट मरो इक दिन.
मरे हुए पेड़ कभी बोलते नहीं पर एसएमएस पर एक अफवाह फैली है कि कल वह पेड़ बोल रहा था. बकौल अफवाह पेड़ ने कहा तुम चिड़ियों की बीट से घबराते हो, तुम उन मीठे, रसीले फलों के हक़दार नहीं.